क्या पाकिस्तान की धमकियों के बाद भारत को इंडस संधि पर फिर से विचार करना चाहिए?

क्या पाकिस्तान की धमकियों के बाद भारत को इंडस संधि पर फिर से विचार करना चाहिए?

पाकिस्तान की हाल की धमकियों ने इंडस वाटर्स ट्रीटी पर फिर बहस छेड़ दी है। क्या भारत को इसे दोबारा सोचना चाहिए? एक निजी नज़र — सवाल, शक़ और सीधी बात।

हर बार जब खबर आती है कि पाकिस्तान ने पानी को लेकर फिर कोई “चेतावनी” या “धमकी” दे दी है, तो सच कहूँ तो मुझे हँसी और झुंझलाहट दोनों आती है। आखिर ये पुराना खेल हम कब तक खेलते रहेंगे?

इंडस वाटर्स ट्रीटी 1960 में साइन हुई थी। पूरे पैंसठ साल हो गए। ये तो कई लोगों की शादी से भी ज़्यादा पुरानी है। और मान लीजिए अगर किसी शादी में इतना शक़, इल्ज़ाम और कड़वाहट होती, तो लोग कब का तलाक़ ले लेते। लेकिन भारत और पाकिस्तान? अब भी इस काग़ज़ी वादे से बँधे हैं — नदियों पर, जो बॉर्डर की परवाह ही नहीं करतीं। 🌊

सबसे ज़्यादा खटकने वाली बात ये है — भारत ने तीन पश्चिमी नदियाँ छोड़ दीं — इंडस, झेलम, चिनाब । ये मिलकर लगभग 80% पानी का बहाव बनाती हैं। हाँ, अस्सी प्रतिशत। और हमें कहा गया: “इन्हें मत छेड़ना, ये पाकिस्तान की ज़िंदगी हैं।” और हम? तीन छोटी नदियों (रावी, ब्यास, सतलुज) से काम चला रहे हैं।

काफी बड़ा दिल दिखाया, है न? कोई कहेगा मूर्खता थी। लेकिन उस समय शायद सही लगा — शांति अहम थी, अहंकार नहीं।

लेकिन आज? पाकिस्तान हर बार शोर मचाता है जब भारत कोई डैम बनाने की सोचता है। भले ही वो डैम हमारे किसानों या बिजली के लिए क्यों न हो। “संधि का उल्लंघन है” — ये उनका रटा-रटाया डायलॉग है। कभी-कभी दिल करता है पूछ लूँ: तो हमें करना क्या चाहिए? बस देखते रहें पानी बहकर निकल जाए?

और फिर आती हैं धमकियाँ। हर कुछ साल में इस्लामाबाद से आवाज़ उठती है: “हम इस संधि को रद्द करेंगे, हम इसकी समीक्षा करेंगे।” मज़ेदार बात ये है कि ये संधि असल में पाकिस्तान के पक्ष में ज़्यादा है। अगर किसी को तोड़ना है तो भारत के पास वजहें कहीं ज़्यादा हैं। लेकिन हम नहीं करते। शायद इसलिए कि हमें सब्र सिखाया गया है। या शायद इसलिए कि हमारे पास और भी बड़ी चिंताएँ हैं।

लेकिन सच कहूँ, सब्र की भी एक हद होती है।

क्योंकि पानी सिर्फ़ राजनीति नहीं है। ये हमारी रोटी है। हमारे खेत हैं। हमारी बत्ती है। और जब पाकिस्तान इस ट्रीटी को हथियार बनाकर धमकियाँ देता है, तो मन में सवाल उठता है — क्यों न हम भी इसे खोलकर दोबारा देखें?

अब मैं ये नहीं कह रहा कि भारत नदियों पर ताला लगा दे। वो हमारा तरीका नहीं है। लेकिन क्या हम बहुत ज़्यादा “सभ्य” नहीं हो रहे? बहुत ज़्यादा संयमित? पाकिस्तान को पता है कि हम हमेशा “परिपक्वता” दिखाएँगे। लेकिन परिपक्वता का मतलब कमज़ोरी नहीं होता। संयम का मतलब ये नहीं कि कोई हमें बंधक बनाए।

शायद वक्त आ गया है कि हम इस संधि को फिर से पढ़ें। लाइन दर लाइन। क्लॉज़ दर क्लॉज़। और पूछें — क्या ये 2025 के भारत के लिए सही है? या बस एक पुराना अवशेष है, जैसे दादी के घर पड़ा वो लैंडलाइन फ़ोन, जिसे अब कोई इस्तेमाल नहीं करता।

तो, क्या भारत को इंडस ट्रीटी पर दोबारा विचार करना चाहिए?

मेरी राय? हाँ — कम से कम समीक्षा तो ज़रूर करनी चाहिए। बदले की भावना से नहीं। न ही धमकी के तौर पर। बल्कि एक व्यावहारिक नज़र से। क्योंकि पानी आने वाले सालों में और भी कम होने वाला है। और हम हमेशा बड़े दिल वाले “मकान मालिक” नहीं बन सकते, जबकि हमारे अपने खेत सूखते जा रहे हों।

आख़िर में, संधियाँ काग़ज़ पर लिखी जाती हैं। नदियाँ प्रकृति लिखती है। और प्रकृति समझौते नहीं करती।