आदिवासी सशक्तिकरण कोई ट्रेंड नहीं — ये भारत की विकास गाथा की सबसे बड़ी कमी है
सीधी बात कहूं?
जब तक हम अपने आदिवासी समुदायों को पीछे छोड़ते रहेंगे, तब तक 2047 का “विकसित भारत” बस एक अधूरा सपना रहेगा।
सीधा गणित है।
ये ऐसा है जैसे आधी पहेली सुलझा ली हो और सोच रहे हों कि काम पूरा हो गया।
सच कहूं — अधूरा काम, अधूरी तस्वीर।

ये सिर्फ "आदिवासी" नहीं हैं — ये भी भारत हैं
कभी सोचा है कि भारत के असली जंगल, नदियों और पहाड़ों के रक्षक कौन हैं?
हम जैसे शहर के लोग नहीं, जो ट्रैकिंग शूज़ पहन कर जंगलों की फोटो खींचते हैं।
असल में तो हमारे आदिवासी भाई-बहन हैं — जो पीढ़ियों से इन जंगलों के साथ जीते आए हैं।
जंगल उनके लिए "प्राकृतिक संसाधन" नहीं — वो उनकी जान हैं, उनका धर्म है।
मुझे ओडिशा और छत्तीसगढ़ के कुछ इलाकों में जाने का मौका मिला था।
वहां डोंगरिया कोंध जनजाति के एक बुज़ुर्ग ने कहा था — "जंगल हमारी मां है।"
उस एक लाइन ने दिल छू लिया।
हम सड़कें बनाते हैं, फैक्ट्रियां लगाते हैं और फिर "सेव द प्लैनेट" की मुहिम चलाते हैं।
वो बिना बोले पेड़ लगाते हैं।
कोई नारा नहीं, बस काम।
सच कहें तो — हमने उन्हें बहुत बार धोखा दिया है
ये कोई इमोशनल कहानी नहीं है, बस कड़वा सच है।
- हमने उनकी ज़मीन छीनी,
- बांध और खदानें बनाई,
- उन्हें “पिछड़ा” करार दिया,
- और फिर कुछ सरकारी योजनाओं का लॉलीपॉप थमा दिया।
कड़वा लग रहा है?
पर यही तो हुआ है।
"विकास" के नाम पर असल में फायदा किसे मिला?
उनकी ज़मीन गई, उनकी पहचान गई, उनकी संस्कृति खो गई।
और बदले में? एक राशन कार्ड? टूटी हुई स्कूल बिल्डिंग? या फिर उसी कंपनी में सबसे नीचे की नौकरी जिसने उनकी ज़िंदगी उजाड़ दी?
ये न्याय है क्या?

असल सशक्तिकरण सुनने से शुरू होता है 👂
हमें उन्हें जीना सिखाने की जरूरत नहीं है।
वो तो सदियों से प्रकृति के साथ तालमेल में जीते आए हैं।
उन्हें चाहिए —
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, सही इलाज, नीति निर्माण में भागीदारी, और अपनी संस्कृति की रक्षा।
लेकिन बात ये है — ये सब उनकी शर्तों पर होना चाहिए।
हाथ में कटोरा नहीं, बल्कि बराबरी की साझेदारी।
उदाहरण के लिए —
आदिवासी बच्चों को वही पुराना पाठ्यक्रम क्यों पढ़ाया जाए?
क्यों न उसमें उनकी कहानियाँ, उनकी भाषाएं, उनकी विरासत भी हो?
हमेशा ये क्यों मान लेते हैं कि "मुख्यधारा" ही बेहतर है?
उन्हें उनकी पहचान के साथ आगे बढ़ने दें।
स्किल्स दें, सिर्फ नियम नहीं।
सिर्फ कल्याण नहीं — नेतृत्व की बात करें
ये बात मुझे अंदर से छूती है।
हम हमेशा उनके लिए योजनाएं बनाते हैं — लेकिन उनके साथ बैठकर कितनी बार बनाई?
आदिवासी सशक्तिकरण का मतलब सिर्फ नौकरियाँ देना या स्कूल बनवाना नहीं है।
मतलब है — उन्हें लीडरशिप की सीट पर देखना।
सोचिए —
एक आदिवासी महिला, जो IAS बनती है — अपनी पहचान छुपाने के लिए नहीं, बल्कि गर्व से उसका प्रतिनिधित्व करने के लिए।
एक गोंडी भाषी लड़का, जो अपने गाँव के लिए ऐप बनाता है — मौसम की जानकारी, सरकारी योजनाएं, या फिर लोक-कथाएं बचाने वाला प्लेटफॉर्म।
ये सपना नहीं है। हकीकत बन सकता है।
लेकिन पहले हमें उन्हें "समस्या" नहीं, बल्कि "साथी" मानना होगा।
ये सिर्फ उनका संघर्ष नहीं — ये हमारा भी है 💪
अगर आप शहर में रहते हैं और सोचते हैं कि ये मुद्दा आपसे जुड़ा नहीं — तो दो मिनट ठहरिए।
- उनके जंगल? वही हवा आप भी सांस लेते हैं।
- उनकी नदियां? वहीं पानी आपके नलों में आता है।
- जलवायु संकट? वो तो पहले से इससे जूझ रहे हैं, जब हम “क्लाइमेट चेंज” का मतलब भी नहीं जानते थे।
आदिवासी सशक्तिकरण = भारत का सशक्तिकरण।
उनका विकास = हमारा टिकाऊ भविष्य।
और अगर हम 10 करोड़ से ज्यादा आदिवासी लोगों को पीछे छोड़ दें — तो ये कैसा "विकास" है?

एक निजी एहसास
मैं हमेशा ऐसा नहीं सोचता था।
बचपन में किताबों या स्कूल फंक्शन में ही आदिवासी समुदाय के बारे में सुना था।
उन्हें "देखा" नहीं — इंसान की तरह, समान अधिकारों और सपनों वाले नागरिक की तरह।
फिर एक वर्कशॉप में कुछ आदिवासी बच्चों से मिलने का मौका मिला।
तब फर्क समझ आया।
एक लड़की, मीना, ने बताया कि उसके पापा 12 किलोमीटर पैदल चलकर भाई को अस्पताल ले जाते हैं।
एक लड़का कहता था कि उसे कोडिंग पसंद है, पर घर पर इंटरनेट नहीं है।
उनके सपने हमारे जैसे हैं।
बस रास्ता ज़्यादा मुश्किल है।
क्यों?
क्योंकि सिस्टम को उम्मीद ही नहीं होती कि वो ऊपर उठ सकते हैं।
आख़िरी बात — बड़ी बातें नहीं, बस बड़ी उम्मीद 🌱
अगर आप यहां तक पढ़कर आए हैं, तो दिल से शुक्रिया।
शायद अगली बार जब कोई नेता "समावेशी विकास" की बात करे — आप सोचें कि क्या आदिवासी भी उस तस्वीर में शामिल हैं।
शायद जब कोई आदिवासी लोगों का मज़ाक उड़ाए — आप उसे टोकें।
शायद आप मदद करें, डोनेट करें, या बस थोड़ी सी सहानुभूति दिखाएं।
आदिवासी सशक्तिकरण कोई दान नहीं है।
ये इंसाफ है।
और ये वही चाबी है, जो उस भारत का ताला खोल सकती है —
जो ऊंची इमारतों में ही नहीं, हर नागरिक के आत्म-सम्मान में झलकता है।
चलो एक नया भारत बनाएं —
लेकिन अपने सबसे पुराने हिस्सों को मिटाकर नहीं।
और याद रखें — केवल समावेशिता ही नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार जैसी गहरी जड़ों को हटाना भी सशक्तिकरण का एक अहम हिस्सा है। अगर आप जानना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार मुक्त भारत कैसे विकास की असली कुंजी है, तो यह लेख ज़रूर पढ़ें:
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